बुधवार, 23 मार्च 2011

व्यंग्य


एक होली
छिपकली के संग 

- रत्ना वर्मा

होली की याद आते ही मन एक अजीब से उल्लास से भर उठता है, मदहोशी सी छा जाती है, जहां सिर्फ रंग ही रंग नजर आता है और तब इन रंगों में डूब जाने को खो जाने का जी मछल उठता है। शायद ही कोई होगा जिनके जीवन से होली के खट्टे- मीठे अनुभव न जुड़ें हों। किसी को अपने प्रियतम के साथ खेली पहली होली याद रह जाती है, तो किसी को देवर-भाभी, ननद या दोस्तों की टोली की मस्ती भरी वह होली एक खुशनुमा याद बन कर रह जाती है, जिसकी याद हर होली पर करके झूम उठते हैं।
मेरे अपनी भी कुछ इसी प्रकार खट्टे- मीठे अनुभव है, जिसे मैं भूल नहीं पाती और शायद कभी भूल भी नहीं पाऊंगी। पिछले वर्ष होली की बात है- हम सुबह आस-पड़ोस की चाची भाभियों को रंग-गुलाल लगाने निकले। सुबह नहीं कहना चाहिए, लगभग 11 बजे होंगे। 11 बजे तक हम सब इस इंतजार में बैठे थे कि कालोनी से कोई तो पहल करेगा। काफी इंतजार करने के बाद जब कोई नहीं निकला, तब हमने ही पहल की और निकल पड़े रंग-गुलाल लेकर। तब कालोनी में नये-नये ही आये थे, सो ज्यादा जान पहचान तो थी नहीं। सबसे ज्यादा दुख की बात तो ये थी कि कोई हम उम्र दोस्त नहीं थी, इसलिए चाची भाभी के साथ ही होली का मजा ले लिया...।
हां तो इसी दिन की एक घटना सुनाने जा रही थी हुआ यूं कि हम जब होली खेल कर घर आये, लगभग 2 बजे होंगे, ये सोच कर कि अब कोई नहीं आयेगा, नहा लिया जाय। घर में सबके नहा चुकने के बाद हमने नम्बर लगाया और पूरी तैयासी से घुस गये बाथरूम में। लाल-हरे रंगों को छुड़ाने में एक घंटा से ज्यादा ही वक्त लगा होगा। नहा-धोकर जैसे ही निकलने वाले थे कि कालबेल बजी- ट्रिन... ट्रिन...। और हमारे हाथ दरवाजे की सिटकानी तक जाते जाते रूक गये। हम सोचने लगे, न जाने कौन है, होली का दिन है, कई लोग आ सकते हैं। कान लगाकर बाहर की आहट लेने की कोशिश करने लगे। आवाज सुनाई पड़ी तो पहचान गये कौन है, उनकी आदतों से हम अच्छी तरह वाकिफ थे, क्योंकि एक बार की होली में उन्होंने हमारी बहुत बुरी गत बनाई थी। बाहर सभी भाई बहन, जो कि नहा चुके थे को उन्होंने एक बार और नहला दिया था रंगों से। अब उनको बस, हमारे निकलने का इंतजार था कि कब निकलें और हमें रंगों से सराबोर कर दें। ठान ली थी, नहीं निकलेंगे, चाहे घंटों बीत जायें। आप माने या न मानें नहाने के बाद पूरे 2 घंटे और, हम बाथरूम में बंद रहे।
बाहर तो खैर जो रहा था, अलग बात है, पर अंदर क्या घटित हो रहा था, वो मैं अब सुनाने जा रही हूं। बाहर का शोरगुल जरा थमा तो हम निकलने का विचार करने लगे और जैसे ही दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया कि चीख निकल गई- हम जहां के तहां दिल थामे खड़े रह गये... दरवाजे में सिटकनी के पास ही एक छोटी 'छिपकली की बच्ची' बड़े आराम से बैठी थी हमारी तो जान निकली जा रही थी, चूंकि बाथरूम जरा छोटा है इसलिए न तो हम पीछे ही खिसक पा रहे थे, न ही बाहर निकल पा रहे थे। छिपकली रानी से नजरें मिलाने का साहस तो नहीं था, फिर भी किसी तरह उसकी तरफ याचक-भाव से देखा। वह हमें ऐसे देख रही थी, मानो कह रही हो- 'हम तो आज आपके साथ होली खेल कर ही जायेंगे।'
थोड़ी देर आंख बंद किये बाहर निकलने का उपाय सोचते रहे। सोचा क्यूं न पानी छिटक कर भगाया जाय, पर डर था कहीं भागने के बजाय उल्टे हमारे ऊपर ही न कूद पड़े। कुछ सूझ नहीं रहा था, राम-नाम जपने के सिवाय। एक घंटे तक हाथ पैर घिस-घिस कर नहाया था तो ठंडक भी महसूस हो रही थी, अब खड़े-खड़े कांपने के सिवाय कोई चारा भी नहीं था। शी...शी... करके मुंह से आवाज की पर उसे इससे क्या मतलब। महारानी जी तो जैसे कसम खाकर बैठी थी कि- 'बाहर वाले से बच कर तो यहां छुपी बैठी हो, पर हमसे बच कर कहां जाओगी, होली तो खेलनी ही पड़ेगी, हां...।' हमारी सहन शक्ति अब जवाब दे रही थी और हमें रोना आने लगा था।
तभी हमें एक उपाय सूझा। छिपकली की ओर से अपना मुंह झटके से यूं फिराया, जिससे उसे अपनी तौहीन महसूस हो, और हम अकड़ कर खड़े हो गये... लो, नहीं खेलते तुम्हारी साथ होली, क्या कर लोगी? पर नहीं जनाब, उस ढीठ छिपकली पर इसका कोई असर नहीं हुआ, वह वहां से टस से मस नहीं हुई। हमको आ गया ताव, हमने भी सोचा-क्या याद रखोगी छिपकली रानी कि किसी के साथ ऐसी भी होली खेली थी, और पानी से भरा मग उठा, दे मारा छिपकली के ऊपर होली है... बुरा न मानो होली है... कहते हुए। पानी फेंकते समय न जाने क्यों आंख बंद हो गई थी, थोड़ी देर बाद धीरे-धीरे आंख खोलकर देखा सचमुच छिपकली गायब थी। तो क्या वह होली खेलने ही वहां बैठी। तसल्ली के लिए हमे अपने हाथ-पैर और कपड़ों को झड़ाया, कहीं गुलाल मलने के बहाने ऊपर ही न कूद गई हो। पर नहीं शायद पानी के भरपूर प्रहार से वह डर गई थी, तभी तो हमारे चेहरे पर अबीर-गुलाल मलने की जुर्रत नहीं कर सकी।
बाथरूम के चारों ओर पुन: नजरें फिरा कर डरते-बचते, भागते से हम बाहर कूद ही पड़े। बाहर आकर जान में जान आई और सोचने लगे- अच्छा होता, पहले ही निकल गये होते, भले ही दोबारा नहाना पड़ता। वैसे उस दिन ये सोचा लिया कि अब रंगों से डर के घंटों बाथरूम में कभी नहीं छिपेंगे, नहीं तो हर बार छिपकली से ही होली खेलनी पड़ेगी। पर कुछ भी कहिये, ये भी एक अनोखा अनुभव रहा, छिपकली के साथ होली खेलने का। क्या, आपने खेली है, ऐसी होली? नहीं? भई हमने तो खेली है और पूरे 2 घंटे खेली है...।

शनिवार, 13 नवंबर 2010

व्यंग्य

किसे वोट देंगी आप ?
डॉ. रत्ना वर्मा
अब चुनाव प्रचार दरवाजे पर है। प्रत्याशी हाथ जोड़ रहे हैं और अखबार वाले मतदाताओं को टटोल रहे हैं।
जहां ब्यूटी पार्लर का विज्ञापन दीवार पर है, ठीक उसके नीचे हाथी छाप को प्रचंड बहुमत से विजयी बनाने का चुनावी विज्ञापन अपना दावा ठोक रहा है। व्हील छाप साबुन के व्हील का उपयोग कार्यकर्ताओं ने जिस सूझबूझ के साथ किया है, उससे तबियत प्रसन्न हो रही है। व्हील तो जहां था वहीं है लेकिन साबुन पर सफेदा पोत कर कार्यकर्ताओं ने प्रत्याशी का नाम लिख दिया है और पढ़ने से लगता है सफेदी और चमक के लिये व्हील छाप साबुन ही उपयोग करें। महिलाओं में अत्यंत लोकप्रिय साबुन “व्हील छाप साबुन।
मतदाताओं को टटोलने का सीजन शुरु हो गया है। मैंने भी सोचा कि इसी बहाने कुछ महिलाओं को टटोल लूं।
एक बड़ा सा मकान, गेट पर लिखा था-कुत्तों से सावधान। चुनाव चल रहा है। इसलिए मुझे इस तरह का नया विज्ञापन अच्छा लगा। मैं ठिठक गई। कोई बाहर दिखे तो मैं किसी महिला को टटोलूं। मैं सोच ही रही थी कि एक आदमी दिखा। मुझे असमंजस में खड़ा देख कर बोला, आईये ... अंदर आ जाइये। बोर्ड देखकर डर रही है आप? अभी इस बंगले में कुत्ता नहीं है। मेम साहब ने अलशेसियन पिल्ले का आर्डर बुक कर रखा है।
मेरी इच्छा हुई कि उससे कहूं कि जब इस घर में स्वागत के लिए आपके अलावा और कोई नहीं है तो फिर इस बोर्ड की क्या जरूरत है? लेकिन उसने बीच में ही कहा, बोर्ड लगा देने से चोर और भिखारियों का डर नहीं रहता.... वे इस दरवाजे पर नहीं आते। आप तो अंदर आ जाइये।
गेट के बंगले की दूरी पार करते हुए मैं चुपचाप चल रही थी। थोड़ी दूर वह आदमी मेरे साथ चला। फिर बोला, आप मेम साहब से मिल लीजिए... मुझे गमलों में पानी डालना है।
मेरे कालबेल दबाते ही पक्षियों के चहचहाने की आवाज गूंज उठी। घरेलू सी दिखने वाली एक महिला ने दरवाजा खोला और बोली, क्या है?
मैंने कहा- मेम साहब से कह देना टीवी वाली आई है।
टीवी की बात मैंने इसलिए की कि अपनी तस्वीर टीवी पर दिखाये जाने के लालच में मेरा आदर सत्कार सही होगा। मैं बैठक में आ गई। थोड़ी देर बाद नौकरानी नाश्ते की प्लेट और चाय ले आई तभी मेरी समझ में आ गया कि अपना इम्प्रेशन ठीक जम गया है। वह बोली, मेम साहब तैयार हो रही है... आप तब तक चाय लीजिए।
मैं जानती हूं कि बिना सजे धजे वे बाहर नहीं आएंगी। महिलाओं के साथ यही प्राब्लम है। चाहे उन्हें मतदान में जाना हो या किसी शोकसभा में, वे बिना मेकअप किए नहीं जाती। टीवी सीरियलों ने महिलाओं को कम से कम इतना जागरूक तो किया ही है।
मेम साहब आधे घंटे के बाद चेहरे पर मुस्कान बिखेरती हुई बैठक में आ गईं। मैंने औपचारिकता और शिष्टाचार के बाद सीधा सवाल किया, आप किस पार्टी को वोट देंगी?
मेरे इस प्रश्न से वो बौखला गई। इस प्रश्न के बदले मुझे उनकी साड़ी की तारीफ करनी थी और कहना था कि आप कितनी स्मार्ट लग रही है। ऐसे प्रश्न महिलाओं को हर मौसम में प्रसन्न रखते हैं।
वह बोली- क्या पार्टी ? कीटी? मैंने कहा लगता है आप किसी पार्टी में जा रही हैं?
इस बार मेरा प्रश्न सुनकर वे खुश हुई। बोली- ये पार्टियां न हो तो हम जैसी महिलाओं का टाइम पास ही न हो।
मैंने फिर पूछा- इस बार चुनाव में वोट आप किसे देंगी?
वह बोली- अभी कुछ सोचा नहीं है...मिसेज भटनागर और मिसेज़ चंद्रा से डिसकस करेंगे आज की कीटी पार्टी में। मूड हुआ तो चले जाएंगे वोट देने...
मैंने सोचा ऐसी जागरुक महिला मतदाता के पीछे समय बर्बाद करना ठीक नहीं। यही सोच कर मैंने कहा-अच्छा, आप पार्टी में जाइये मैं चलती हूं।
वह बोली, लेकिन टीवी ... बात पूरी होने के पहले ही मैं बंगले से बाहर आ गई।
थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद एक महिला अपने घर के दरवाजे पर खड़ी बार-बार सड़क की ओर देख रही थी। मैंने सोचा उन्हें भी टटोल लूं।
मैंने पूछा- किसी का इंतजार कर रही हैं आप?
वह बोली, जी हां ... बच्चों का स्कूल से आने का समय हो गया है और “वे” भी आते ही होंगे। जैसे ही उनकी गाड़ी और बच्चों का रिक्शा दिखेगा, मैं दूध और चाय गैस पर रख देती हूं। क्योंकि इसमें यदि थोड़ी भी देर भी हुई तो वे पूरा घर सिर पर उठा लेते हैं।
मैं महिलाओं से इसी गृहस्थी के किस्से से डरती हूं। कहीं यह किस्सा आगे चला तो मेरा पूरा समय बर्बाद हो जाएगा। यही सोचकर मैंने उनसे सीधा सवाल किया, इस बार आप चुनाव में किसे वोट देंगी?
तभी बच्चों का रिक्शा आता दिखाई दिया। वह बोली- बच्चे आ गये, आप अंदर आकर बैठिए मैं चाय चढ़ा देती हूं।
मैंने कहा- लेकिन मुझे यह तो बताइये कि आप वोट किसे देंगी?
वह बोली- वे जिसे कहेंगे उसे ही दे दूंगी... हम औरतों को तो जिंदगी भर किचन में रहना है। शादी के इतने साल बाद भी मैं आज तक उनका ही कहना मानती हूं। फिर वोट से हमें क्या करना है? किसी को भी दें, महंगाई कम होने वाली नहीं है।
मैं सोच रही थी कि महिलाओं को लेकर लंबे- लंबे सर्वेक्षण होते हैं और आज भी महिलाएं सोचती हैं कि उनकी जिम्मेदारी किचन तक ही सीमित है। बच्चों को दूध गरम कर देने और पतियों के ऑफिस से लौटने के बाद गरम चाय पिलाने तक ही।
थोड़ी दूर जाने के बाद झुग्गी झोपडियों वाला मुहल्ला शुरु हो गया। मैंने सोचा इन गरीब महिलाओं को भी टटोल लूं। एक झोपड़ी के सामने तीन चार गंदे बच्चे खेल रहे थे। एक महिला उन्हें गालियां दे रही थी। थोड़ी देर बाद उसका पति झोपड़ी से बाहर आया तो महिला उसे भी कोसने लगी। गुस्से में बोली- जब बच्चों का पेट नहीं भर सकते थे तो इतने बच्चे क्यों पैदा करवा दिये? मैं दिन भर काम करते मर रही हूं और तुम दिन भर घूमते हो और रात को पीकर पड़े रहते हो... तुम्हें ना मेरी फिकर है और ना बच्चों की।
पति मुंह झुकाये चुपचाप चला गया।
मैंने सोचा देश के सही और निर्णायक मतदाता तो यही हैं। जिसे वोट दे देंगे, वे ही सरकार बना लेंगे और पांच साल तक मौज करेंगे। मैं उसकी झोपड़ी के सामने रूक गई। मुझे देखकर वह बोली-क्या है? कौन सी पार्टी वाली हो? जल्दी बोलो ... मुझे बहुत काम है।
मैंने पूछा- तुम्हारा पति कुछ काम नहीं करता है?
वह बोली- तुमको क्या करने का? मेरा पति है ... काम करे कि नई करे। तुम जल्दी बोलो- क्या तुम्हारी पार्टी काम दे देगी? कोई काम देगी तो बोलो ... अभीच पइसा दे दो तभीच वोट देंगे, तुम्हारी पार्टी को।
मैं समझ नहीं पा रही थी कि उसे किस तरह टटोलूं। मैंने कहा – मैं तो पूछने आई थी कि तुम किसको वोट दोगी।
वह गुस्से में बोली- तुमको पहलेच बोला ना कि जो पईसा देगा उसीच को वोट देने को बोल, दिलाती क्या पईसा? अभी रोज पार्टी वाला आता है लेकिन पईसा कोई नहीं देता। जो पहले देगा, उसी को वोट दे दूंगी ... इस चुनाव में बच्चों का कपड़ा सिलवाना है। जल्दी बोल, कित्ता पईसा देती है?
मैं उसकी बात का जवाब दिये बिना ही आगे बढ़ गई। समय कम है, मुझे अभी भी महिलाओं की मानसिकता को टटोलना है। अखबार के लिये महिलाओं की जागरुकता पर रपट तैयार करनी है।- डॉ. रत्ना वर्मा
अब चुनाव प्रचार दरवाजे पर है। प्रत्याशी हाथ जोड़ रहे हैं और अखबार वाले मतदाताओं को टटोल रहे हैं।
जहां ब्यूटी पार्लर का विज्ञापन दीवार पर है, ठीक उसके नीचे हाथी छाप को प्रचंड बहुमत से विजयी बनाने का चुनावी विज्ञापन अपना दावा ठोक रहा है। व्हील छाप साबुन के व्हील का उपयोग कार्यकर्ताओं ने जिस सूझबूझ के साथ किया है, उससे तबियत प्रसन्न हो रही है। व्हील तो जहां था वहीं है लेकिन साबुन पर सफेदा पोत कर कार्यकर्ताओं ने प्रत्याशी का नाम लिख दिया है और पढ़ने से लगता है सफेदी और चमक के लिये व्हील छाप साबुन ही उपयोग करें। महिलाओं में अत्यंत लोकप्रिय साबुन व्हील छाप साबुन।
मतदाताओं को टटोलने का सीजन शुरु हो गया है। मैंने भी सोचा कि इसी बहाने कुछ महिलाओं को टटोल लूं।
एक बड़ा सा मकान, गेट पर लिखा था-कुत्तों से सावधान। चुनाव चल रहा है। इसलिए मुझे इस तरह का नया विज्ञापन अच्छा लगा। मैं ठिठक गई। कोई बाहर दिखे तो मैं किसी महिला को टटोलूं। मैं सोच ही रही थी कि एक आदमी दिखा। मुझे असमंजस में खड़ा देख कर बोला, आईये ... अंदर आ जाइये। बोर्ड देखकर डर रही है आप? अभी इस बंगले में कुत्ता नहीं है। मेम साहब ने अलशेसियन पिल्ले का आर्डर बुक कर रखा है।
मेरी इच्छा हुई कि उससे कहूं कि जब इस घर में स्वागत के लिए आपके अलावा और कोई नहीं है तो फिर इस बोर्ड की क्या जरूरत है? लेकिन उसने बीच में ही कहा, बोर्ड लगा देने से चोर और भिखारियों का डर नहीं रहता.... वे इस दरवाजे पर नहीं आते। आप तो अंदर आ जाइये।
गेट के बंगले की दूरी पार करते हुए मैं चुपचाप चल रही थी। थोड़ी दूर वह आदमी मेरे साथ चला। फिर बोला, आप मेम साहब से मिल लीजिए... मुझे गमलों में पानी डालना है।
मेरे कालबेल दबाते ही पक्षियों के चहचहाने की आवाज गूंज उठी। घरेलू सी दिखने वाली एक महिला ने दरवाजा खोला और बोली, क्या है?
मैंने कहा- मेम साहब से कह देना टीवी वाली आई है।
टीवी की बात मैंने इसलिए की कि अपनी तस्वीर टीवी पर दिखाये जाने के लालच में मेरा आदर सत्कार सही होगा। मैं बैठक में आ गई। थोड़ी देर बाद नौकरानी नाश्ते की प्लेट और चाय ले आई तभी मेरी समझ में आ गया कि अपना इम्प्रेशन ठीक जम गया है। वह बोली, मेम साहब तैयार हो रही है... आप तब तक चाय लीजिए।
मैं जानती हूं कि बिना सजे धजे वे बाहर नहीं आएंगी। महिलाओं के साथ यही प्राब्लम है। चाहे उन्हें मतदान में जाना हो या किसी शोकसभा में, वे बिना मेकअप किए नहीं जाती। टीवी सीरियलों ने महिलाओं को कम से कम इतना जागरूक तो किया ही है।
मेम साहब आधे घंटे के बाद चेहरे पर मुस्कान बिखेरती हुई बैठक में आ गईं। मैंने औपचारिकता और शिष्टाचार के बाद सीधा सवाल किया, आप किस पार्टी को वोट देंगी?
मेरे इस प्रश्न से वो बौखला गई। इस प्रश्न के बदले मुझे उनकी साड़ी की तारीफ करनी थी और कहना था कि आप कितनी स्मार्ट लग रही है। ऐसे प्रश्न महिलाओं को हर मौसम में प्रसन्न रखते हैं।
वह बोली- क्या पार्टी ? कीटी? मैंने कहा लगता है आप किसी पार्टी में जा रही हैं?
इस बार मेरा प्रश्न सुनकर वे खुश हुई। बोली- ये पार्टियां न हो तो हम जैसी महिलाओं का टाइम पास ही न हो।
मैंने फिर पूछा- इस बार चुनाव में वोट आप किसे देंगी?
वह बोली- अभी कुछ सोचा नहीं है...मिसेज भटनागर और मिसेज़ चंद्रा से डिसकस करेंगे आज की कीटी पार्टी में। मूड हुआ तो चले जाएंगे वोट देने...
मैंने सोचा ऐसी जागरुक महिला मतदाता के पीछे समय बर्बाद करना ठीक नहीं। यही सोच कर मैंने कहा-अच्छा, आप पार्टी में जाइये मैं चलती हूं।
वह बोली, लेकिन टीवी ... बात पूरी होने के पहले ही मैं बंगले से बाहर आ गई।
थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद एक महिला अपने घर के दरवाजे पर खड़ी बार-बार सड़क की ओर देख रही थी। मैंने सोचा उन्हें भी टटोल लूं।
मैंने पूछा- किसी का इंतजार कर रही हैं आप?
वह बोली, जी हां ... बच्चों का स्कूल से आने का समय हो गया है और वे भी आते ही होंगे। जैसे ही उनकी गाड़ी और बच्चों का रिक्शा दिखेगा, मैं दूध और चाय गैस पर रख देती हूं। क्योंकि इसमें यदि थोड़ी भी देर भी हुई तो वे पूरा घर सिर पर उठा लेते हैं।
मैं महिलाओं से इसी गृहस्थी के किस्से से डरती हूं। कहीं यह किस्सा आगे चला तो मेरा पूरा समय बर्बाद हो जाएगा। यही सोचकर मैंने उनसे सीधा सवाल किया, इस बार आप चुनाव में किसे वोट देंगी?
तभी बच्चों का रिक्शा आता दिखाई दिया। वह बोली- बच्चे आ गये, आप अंदर आकर बैठिए मैं चाय चढ़ा देती हूं।
मैंने कहा- लेकिन मुझे यह तो बताइये कि आप वोट किसे देंगी?
वह बोली- वे जिसे कहेंगे उसे ही दे दूंगी... हम औरतों को तो जिंदगी भर किचन में रहना है। शादी के इतने साल बाद भी मैं आज तक उनका ही कहना मानती हूं। फिर वोट से हमें क्या करना है? किसी को भी दें, महंगाई कम होने वाली नहीं है।
मैं सोच रही थी कि महिलाओं को लेकर लंबे- लंबे सर्वेक्षण होते हैं और आज भी महिलाएं सोचती हैं कि उनकी जिम्मेदारी किचन तक ही सीमित है। बच्चों को दूध गरम कर देने और पतियों के ऑफिस से लौटने के बाद गरम चाय पिलाने तक ही।
थोड़ी दूर जाने के बाद झुग्गी झोपडियों वाला मुहल्ला शुरु हो गया। मैंने सोचा इन गरीब महिलाओं को भी टटोल लूं। एक झोपड़ी के सामने तीन चार गंदे बच्चे खेल रहे थे। एक महिला उन्हें गालियां दे रही थी। थोड़ी देर बाद उसका पति झोपड़ी से बाहर आया तो महिला उसे भी कोसने लगी। गुस्से में बोली- जब बच्चों का पेट नहीं भर सकते थे तो इतने बच्चे क्यों पैदा करवा दिये? मैं दिन भर काम करते मर रही हूं और तुम दिन भर घूमते हो और रात को पीकर पड़े रहते हो... तुम्हें ना मेरी फिकर है और ना बच्चों की।
पति मुंह झुकाये चुपचाप चला गया।
मैंने सोचा देश के सही और निर्णायक मतदाता तो यही हैं। जिसे वोट दे देंगे, वे ही सरकार बना लेंगे और पांच साल तक मौज करेंगे। मैं उसकी झोपड़ी के सामने रूक गई। मुझे देखकर वह बोली-क्या है? कौन सी पार्टी वाली हो? जल्दी बोलो ... मुझे बहुत काम है।
मैंने पूछा- तुम्हारा पति कुछ काम नहीं करता है?
वह बोली- तुमको क्या करने का? मेरा पति है ... काम करे कि नई करे। तुम जल्दी बोलो- क्या तुम्हारी पार्टी काम दे देगी? कोई काम देगी तो बोलो ... अभीच पइसा दे दो तभीच वोट देंगे, तुम्हारी पार्टी को।
मैं समझ नहीं पा रही थी कि उसे किस तरह टटोलूं। मैंने कहा  मैं तो पूछने आई थी कि तुम किसको वोट दोगी।
वह गुस्से में बोली- तुमको पहलेच बोला ना कि जो पईसा देगा उसीच को वोट देने को बोल, दिलाती क्या पईसा? अभी रोज पार्टी वाला आता है लेकिन पईसा कोई नहीं देता। जो पहले देगा, उसी को वोट दे दूंगी ... इस चुनाव में बच्चों का कपड़ा सिलवाना है। जल्दी बोल, कित्ता पईसा देती है?
मैं उसकी बात का जवाब दिये बिना ही आगे बढ़ गई। समय कम है, मुझे अभी भी महिलाओं की मानसिकता को टटोलना है। अखबार के लिये महिलाओं की जागरुकता पर रपट तैयार करनी है।



रविवार, 13 जून 2010

व्यंग्य

फैशन की राजनीति

-रत्ना वर्मा

मुहल्ले की फैशन-परस्त महिलाएं राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के लिए चर्चा करने जमा हुई थीं।
कुछ महिलाएं बार-बार अपने हाथ ऊपर उठा कर अपनी जड़ाऊ चूडिय़ां दिखा रही थीं। जिन महिलाओं ने कीमती हार पहन रखे थे उनकी साड़ी के पल्ले बार-बार नीचे गिर रहे थे। अधिक सिर हिलाने वाली महिलाओं ने हीरों वाले झुमके पहन रखे थे। सभी राजनीति में आना चाहती थी। लेकिन आदत से लाचार थीं।
मिसेस जरीवाला ने जो कीमती हार पहन रखा है वह उनके पति की रिश्वत की कमाई का है। ऐसे गहनों पर हम थूकती भी नहीं... इससे अच्छा है हमारा नकली हार... क्यों मिसेस भट्टी?
मिसेस भट्टी ने अपनी नयी साड़ी की ओर देखा और बोली, 'हां, मैं भी जानती हूं। दो नम्बर की कमाई से अभी उन्होंने साढ़े चार लाख का फ्लेट खरीदा है। सरकारी नौकरी में है... दोनों हाथों से बटोर रहे हैं। मैं कहती हूं यह सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है... तस्कर पैसे भले ही कमा ले लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं कमा सकता, अब भट्टी साहब को देखो... दिन भर साईट पर कड़ी धूप में घूमते हैं। अपनी मेहनत से ठेकेदारी करते हैं लेकिन जब तक साहबों को बीस परसेन्ट नहीं देते उनके बिल पास नहीं होते हैं... मैं तो कहती हूं हमारे ही पैसों से रौब दिखाने वाली इन महिलाओं को शर्म कब आएगी?'
दूसरे छोर पर जो महिलाएं बैठी थीं उनकी बातें निहायत पारिवारिक और घरेलू थीं।
'अरे कुछ सुना है भट्टी फेमिली के बारे में? उसकी जवान लड़की कहीं भाग गई है। भई क्या जमाना आ गया है। मिसेस भट्टी से पूछो तो कहती है कि अपने मामा के घर गई है। ये कैसा मामा है बहन?'
'लड़कियां अपने मां बाप से ही सीखती है। क्या तुम नहीं जानती कि भट्टी साहब का क्या लफड़ा चला था मुहल्ले में? और मिसेस भट्टी भी कम नहीं है।'
महिलाओं ने ठहाका लगाया।
तभी एक थुल-थुल देहवानी महिला, जो किसी राजनीति पार्टी की सदस्य थीं, सबका ध्यान आकर्षित करती हुई बोली, 'बहनो, अब हम दहेज और सामाजिक कु-प्रथाओं के मसलों से बोर होने लगी हैं। हमारी बहनों को चाहिए कि वे अब राजनीति में आ जाए। महिलाओं को टाइम पास के लिए राजनीति से अच्छी पहल और कोई नहीं हो सकती। मैं बहनों के विचार जानना चाहती हूं।'
थोड़ी देर इधर उधर देखने के बाद वह फिर बोली, 'बहनों हमने महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ कई जुलूस निकाले हैं... जाने कितनी बार अपनी सासों के पुलले जलाए हैं लेकिन आज भी हमारी बहुए जल रही है। अब तो हमें भी इन घिसे-पिटे आंदोलनों से बोरियत होने लगी है... इसलिए अब राजनीति में आना हर महिला का पहला कर्तव्य है।'
उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मिसेस जगन्नाथ बोली, 'बहनों, हमने हर आंदोलन को एक फैशन के रूप में लिया है और इसीलिए हमारे आंदोलनों में महिलाओं की रूचि है। जब भी कोई जुलूस निकलता है हमारे बहने सज-धज कर आती है। इसलिए मैं भी चाहती हूं कि राजनीति को भी हम फैशन के रूप में ही ले। इससे महिलाओं में रूचि बनी रहेगी। क्या आप मेरी राय से सहमत है?'
एक महिला ने कहा, 'सहमत तो हैं लेकिन पहले हमें बताईए कि राजनीति में महिलाओं का कौन सा फैशन चलेगा? राजनीति साड़ी, जेवर या बाल नहीं है कि हम इसके प्रदर्शन से लोगों को अपनी ओर खींच सके।'
दूसरी महिला ने कहा, 'राजनीति में फैशन तो चलता ही है। व्ही.पी.सिंह की फर वाली टोपी, बच्चन जी की शॉल डालने की स्टाइल भी एक फैशन ही है जिसके कारण लोग उनकी तरफ देखते हैं। हम जानना चाहती है कि हमारी बहने राजनीति में कौन से फैशन पर जोर देंगी।'
तभी मिसेस जरीवाला बोली, 'हम उमा भारती के तरह भगवे वस्त्र नहीं पहनेंगी और ना ही राजमाता की तरफ सफेद मोटी साड़ी। यदि आप चाहती है कि हम राजनीति में आएं तो पहले यह करें कि हम कौन से वस्त्र पहने जिससे महिलाओं का राजनीति में आकर्षण बना रहे।'
एक महिला ने कहा, 'वैयन्ती माला बाली भी महिला है... देखिए जब भी लोक-सभा में जाती है कितनी सजी-संवरी लगती है। कौन कहेगा कि उनकी उम्र पचास के आसपास चल रही है। मेरा विचार है कि राजनीति में आने वाली महिलाएं को अपनी उम्र दबाने का पूरा प्रयास पहले करना चाहिए...मारग्रेट अल्वा की तरह हम राजनीति में नहीं जाना चाहती।'
कोने में जो महिला बहुत देर से चुप बैठी थी, बोली, 'आप ठीक ही कहती है। हम महिलाओं को अपने लंबे बालों पर गर्व है। इसलिए राजनीति में महिलाओं के लंबे बालों के फैशन को पुर्नर्जीवित किया जाए और राजनीति की जया बेनो को नकार दिया जाए। घाड़े पूछ जैसी चोटियों को राजनीति में कोई स्थान न दिया जाये।'
कुछ बॉब कट वाली अधेड़ महिलाओं ने इसका विरोध किया और अपना तर्क दिया कि राजनीति का हेयर स्टाइल से कोई संबंध नहीं है इसलिए ऐसी कोई शर्त राजनीति में आने वाली महिलाओं के लिए न रखी जाए वर्ना हम सब इस बैठक में बाय-काट कर देंगी।
तभी एक बाब कट वाली महिला जो शायद बहुत गुस्सेल थी बोली, 'उठो बहनों, यहां सब पुरानी छत्तीसगढ़ी महिलाएं हैं जो राजनीति को अपने ढंग से फैशन-बद्ध चाहती है। हमें ऐसी महिलाओं के बीच रहकर अपना अपमान नहीं करवाना है।'
थुल-थुली महिला ने उन्हें समझाने की कोशिश की और बोली, 'राजनीति संघर्ष का दूसरा नाम है। हम महिलाओं को इन मसलों को आपस में बैठकर हल करने के लिए ही हम यहां जमा हुई है। बाबाकट वाली बहनों से निवेदन है कि वे इस सभा में शांति बनाए रखें।'
लेकिन बॉब-कट वाली महिलाएं इतनी जिद्दी निकलीं कि वे बैठे से उठ कर चली गई।
चर्चा आगे बढ़ी और एक महिला जो काफी बुजुर्ग थी, जरीवाली बनारसी साड़ी को सीधा करती हुई खड़ी हुई और बोली, 'बहनों, आजकल राजनीति में नंगाई चल रही है। मैं स्लीव-लेस राजनीति की पक्षधर नहीं हूं। जब पहली बार तारकेश्वरी सिन्हा ने यह फैशन राजनीति में चलाया उस समय मैं बच्चों की मां नहीं बनी थी। लेकिन एक भारतीय संस्कार में जीने वाली महिला होने के कारण मुझे यह अच्छा नहीं लगा था। मेरा विचार है कि महिलाओं की इस स्लीव-लेस राजनीति को समाप्त किया जाए और यह प्रस्ताव पारित किया जाए कि जो महिला राजनीति में रहेगी उसे लंबी बांह वाला ब्लाउज ही अपनाना पड़ेगा। राजनीति में महिलाओं की नंगी बाहों से मुझे घृणा है।'
एक स्लीवलेस महिला विरोध में खड़ी हुई और बोली, 'हम भारतीय महिलाएं मन के सौंदर्य पर विश्वास करती है। यह तन माटी का चोला है। यही हमारे पूर्वजों की मान्यता है इसलिए आज स्लीव-लेस की बात उठाना उचित नहीं है। मेरा पूरा परिवार स्लीव-लेस है लेकिन हम भारतीय संस्कारों में जीने वाले लोग हैं। यदि आपने यह शर्त रखी तो मैं राजनीति में नहीं आ सकती और मेरे साथ कई महिलाएं हैं जो इस शर्त के कारण जिंदगी में कभी भी राजनीति में नहीं आ सकेंगी।Ó
एक जोशीला स्लीवलेस वाली महिला तुनक कर बोली, 'उठो बहनों, यहां सब पुराने विचार की महिलाएं हैं। हम नये विचार वाली महिलाओं का अलग मंच बनेगा। इन खूसट महिलाओं के बीच हमें बैठने में शर्म आती है। ये आज भी राजनीति में पुराने फैशन ही चलाना चाहती है। इन्हें नहीं मालूम कि जमाना कितना बदल गया है। मैं स्लीव-लेस बहनों से निवेदन करती हूं कि वे मेरा साथ दें। हम राजनीति को पुराने ढर्रे पर नहीं चलने देंगे। अब इस देश की महिलाएं काफी गा आगे बढ़ चुकी हैं। इसलिए बहनों, हमें अपना भविष्य इस देश की राजनीति में अपने ढंग से तय करना है, राजनीति में अपना अलग फैशन बनाना है, देश की महिलाओं को आगे बढ़ाना है। बोलो- भारतमाता की...'
जै के नारों के साथ सभी स्लीव-लेस महिलाएं बाहर आ गई। बैठक में अब केवल थुल-थुल देह वाली महिला के साथ केवल तीन महिलाएं और बची थीं जो राजनीति में नये फैशन पर अभी भी गंभीर थीं। शायद वे तीनों महिलाएं विधान सभा चुनाव लडऩा चाहती थीं और उन्होंने तय किया कि मुहल्ले की महिलाओं को नये सिरे से संगठित किया जाए और राजनीति में महिलाओं को आगे लाया जाए।