बुधवार, 23 मार्च 2011

व्यंग्य


एक होली
छिपकली के संग 

- रत्ना वर्मा

होली की याद आते ही मन एक अजीब से उल्लास से भर उठता है, मदहोशी सी छा जाती है, जहां सिर्फ रंग ही रंग नजर आता है और तब इन रंगों में डूब जाने को खो जाने का जी मछल उठता है। शायद ही कोई होगा जिनके जीवन से होली के खट्टे- मीठे अनुभव न जुड़ें हों। किसी को अपने प्रियतम के साथ खेली पहली होली याद रह जाती है, तो किसी को देवर-भाभी, ननद या दोस्तों की टोली की मस्ती भरी वह होली एक खुशनुमा याद बन कर रह जाती है, जिसकी याद हर होली पर करके झूम उठते हैं।
मेरे अपनी भी कुछ इसी प्रकार खट्टे- मीठे अनुभव है, जिसे मैं भूल नहीं पाती और शायद कभी भूल भी नहीं पाऊंगी। पिछले वर्ष होली की बात है- हम सुबह आस-पड़ोस की चाची भाभियों को रंग-गुलाल लगाने निकले। सुबह नहीं कहना चाहिए, लगभग 11 बजे होंगे। 11 बजे तक हम सब इस इंतजार में बैठे थे कि कालोनी से कोई तो पहल करेगा। काफी इंतजार करने के बाद जब कोई नहीं निकला, तब हमने ही पहल की और निकल पड़े रंग-गुलाल लेकर। तब कालोनी में नये-नये ही आये थे, सो ज्यादा जान पहचान तो थी नहीं। सबसे ज्यादा दुख की बात तो ये थी कि कोई हम उम्र दोस्त नहीं थी, इसलिए चाची भाभी के साथ ही होली का मजा ले लिया...।
हां तो इसी दिन की एक घटना सुनाने जा रही थी हुआ यूं कि हम जब होली खेल कर घर आये, लगभग 2 बजे होंगे, ये सोच कर कि अब कोई नहीं आयेगा, नहा लिया जाय। घर में सबके नहा चुकने के बाद हमने नम्बर लगाया और पूरी तैयासी से घुस गये बाथरूम में। लाल-हरे रंगों को छुड़ाने में एक घंटा से ज्यादा ही वक्त लगा होगा। नहा-धोकर जैसे ही निकलने वाले थे कि कालबेल बजी- ट्रिन... ट्रिन...। और हमारे हाथ दरवाजे की सिटकानी तक जाते जाते रूक गये। हम सोचने लगे, न जाने कौन है, होली का दिन है, कई लोग आ सकते हैं। कान लगाकर बाहर की आहट लेने की कोशिश करने लगे। आवाज सुनाई पड़ी तो पहचान गये कौन है, उनकी आदतों से हम अच्छी तरह वाकिफ थे, क्योंकि एक बार की होली में उन्होंने हमारी बहुत बुरी गत बनाई थी। बाहर सभी भाई बहन, जो कि नहा चुके थे को उन्होंने एक बार और नहला दिया था रंगों से। अब उनको बस, हमारे निकलने का इंतजार था कि कब निकलें और हमें रंगों से सराबोर कर दें। ठान ली थी, नहीं निकलेंगे, चाहे घंटों बीत जायें। आप माने या न मानें नहाने के बाद पूरे 2 घंटे और, हम बाथरूम में बंद रहे।
बाहर तो खैर जो रहा था, अलग बात है, पर अंदर क्या घटित हो रहा था, वो मैं अब सुनाने जा रही हूं। बाहर का शोरगुल जरा थमा तो हम निकलने का विचार करने लगे और जैसे ही दरवाजा खोलने के लिए हाथ बढ़ाया कि चीख निकल गई- हम जहां के तहां दिल थामे खड़े रह गये... दरवाजे में सिटकनी के पास ही एक छोटी 'छिपकली की बच्ची' बड़े आराम से बैठी थी हमारी तो जान निकली जा रही थी, चूंकि बाथरूम जरा छोटा है इसलिए न तो हम पीछे ही खिसक पा रहे थे, न ही बाहर निकल पा रहे थे। छिपकली रानी से नजरें मिलाने का साहस तो नहीं था, फिर भी किसी तरह उसकी तरफ याचक-भाव से देखा। वह हमें ऐसे देख रही थी, मानो कह रही हो- 'हम तो आज आपके साथ होली खेल कर ही जायेंगे।'
थोड़ी देर आंख बंद किये बाहर निकलने का उपाय सोचते रहे। सोचा क्यूं न पानी छिटक कर भगाया जाय, पर डर था कहीं भागने के बजाय उल्टे हमारे ऊपर ही न कूद पड़े। कुछ सूझ नहीं रहा था, राम-नाम जपने के सिवाय। एक घंटे तक हाथ पैर घिस-घिस कर नहाया था तो ठंडक भी महसूस हो रही थी, अब खड़े-खड़े कांपने के सिवाय कोई चारा भी नहीं था। शी...शी... करके मुंह से आवाज की पर उसे इससे क्या मतलब। महारानी जी तो जैसे कसम खाकर बैठी थी कि- 'बाहर वाले से बच कर तो यहां छुपी बैठी हो, पर हमसे बच कर कहां जाओगी, होली तो खेलनी ही पड़ेगी, हां...।' हमारी सहन शक्ति अब जवाब दे रही थी और हमें रोना आने लगा था।
तभी हमें एक उपाय सूझा। छिपकली की ओर से अपना मुंह झटके से यूं फिराया, जिससे उसे अपनी तौहीन महसूस हो, और हम अकड़ कर खड़े हो गये... लो, नहीं खेलते तुम्हारी साथ होली, क्या कर लोगी? पर नहीं जनाब, उस ढीठ छिपकली पर इसका कोई असर नहीं हुआ, वह वहां से टस से मस नहीं हुई। हमको आ गया ताव, हमने भी सोचा-क्या याद रखोगी छिपकली रानी कि किसी के साथ ऐसी भी होली खेली थी, और पानी से भरा मग उठा, दे मारा छिपकली के ऊपर होली है... बुरा न मानो होली है... कहते हुए। पानी फेंकते समय न जाने क्यों आंख बंद हो गई थी, थोड़ी देर बाद धीरे-धीरे आंख खोलकर देखा सचमुच छिपकली गायब थी। तो क्या वह होली खेलने ही वहां बैठी। तसल्ली के लिए हमे अपने हाथ-पैर और कपड़ों को झड़ाया, कहीं गुलाल मलने के बहाने ऊपर ही न कूद गई हो। पर नहीं शायद पानी के भरपूर प्रहार से वह डर गई थी, तभी तो हमारे चेहरे पर अबीर-गुलाल मलने की जुर्रत नहीं कर सकी।
बाथरूम के चारों ओर पुन: नजरें फिरा कर डरते-बचते, भागते से हम बाहर कूद ही पड़े। बाहर आकर जान में जान आई और सोचने लगे- अच्छा होता, पहले ही निकल गये होते, भले ही दोबारा नहाना पड़ता। वैसे उस दिन ये सोचा लिया कि अब रंगों से डर के घंटों बाथरूम में कभी नहीं छिपेंगे, नहीं तो हर बार छिपकली से ही होली खेलनी पड़ेगी। पर कुछ भी कहिये, ये भी एक अनोखा अनुभव रहा, छिपकली के साथ होली खेलने का। क्या, आपने खेली है, ऐसी होली? नहीं? भई हमने तो खेली है और पूरे 2 घंटे खेली है...।

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

'छिपकली से डर?.?.?.?.
shashi parganiha

Unknown ने कहा…

i was playing holi outside when you were in bathroom

प्रणाम पर्यटन ने कहा…

रत्ना जी ,
नमस्कार
आप की इस रचना को मैं अपनी पत्रिका :दिव्यता "मासिक मैं छापना चाहता हूँ, कृपया अनुमति दें ,साथ ही अपना पता भी दें ,जिससे आप को पत्रिका भेजी जा सके .
यदि दो सके तो मेरे नीचे के पते पर अपनी पत्रिका की एक प्रति भी भेजने की कृपया करें .
प्रदीप श्रीवास्तव
संपादक हिंदी मासिक ;दिव्यता
एल. जी .-38 गोयल पैलेस
संजय गांधी पुरम ,फैज़ाबाद रोड
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संपर्क 08604408528
मेल pradeep.srivastava2@gmail.com

रमेशराज तेवरीकार ने कहा…

बहुत ही उम्दा व्यंग्य , आनन्द आया